यद्यपि हिंदी साहित्य के इतिहास मेंकई जैन कवियों का योगदान रहा है परन्तु जैन मध्ययुगीन कवियों को कबीरदास, सूरदास ,तुलसीदास और अन्य मध्ययुगीन निर्गुण और सगुण कवियों जैसा सम्मान नहीं मिल पाया है. जैनकवियों में बनारसीदास, भूधरदास, दौलतराम जी इत्यादि का योगदान उल्लेखनीय है . सूर,कबीर और तुलसी ने या तो सगुण या निर्गुण भक्ति का सहारा लिया जिसकी वजह से वे काफीलोकप्रिय हुए. आज हम ऐसे ही एक जैन कवि बनारसी दास जी के जीवन पर प्रकाश डालते है. जीवनपरिचयबनारसी दास जी का जन्म आधुनिकउत्तरप्रदेश के जौनपुर नामक शहर में व्यापारी खडगसेन के यहाँ सन 1586 ईस्वी सन मेंहुआ था . इनके पिताजी जौहरी के व्यापारी थे. इनका जन्म जैन श्रीमाल जाती में हुआहै . यद्यपि श्रीमाल जाति का सम्बन्धराजस्थान के भीनमाल नामक जगह से है पर इस जाति के लोगउत्तरप्रदेश और मालवा प्रदेश कैसे पहुंचे यह एक शोध का विषय हो सकता है . बनारसीदास का जन्म शायद श्वेताम्बर जैन परिवार में हुआ परन्तु बाद में इन्होने अनेकों मतजैसे पाशुपत, शैव , वैष्णव आदि का पालन करते हुए जैन धर्म को अपनाया . बनारसी दासजी का जन्म नाम विक्रमजीत था परन्तु इनके पिता द्वारा इन्हें बनारस की यात्राकरवाई गयी जहाँ इन्होने पार्श्व और सुपार्श्व की जन्म नगरी में इन्हें बनारसी दासनाम मिला था . इनके जीवन की विस्तृत जानकारी इन्ही के द्वारा लिखित इनकी आत्मकथा“अर्ध कथानक “ में मिलती है . यह आत्मकथा किसी भी भारतीय भाषा में लिखित प्रथमआत्मकथा है . इन्हें भारत में आत्मकथा का जनक कहा जा सकता है. यह आत्मकथा “अर्धकथानक “ इसलिए कही जाती है क्योंकि यह आत्मकथा इन्होने अपने जीवन के 55 वे वर्ष (1641ईस्वी) में लिखी थी और कवि के अनुसार यहाँ उनके जीवन का आधा पड़ाव पूर्ण हुआ था .इन्होने अपनी भाषा के सम्बन्ध में कहा है की उनकी भाषा मध्य देश की भाषा है. बनारसी दास जी द्वारा रचित अर्ध कथानककेवल एक आत्म कथा ही नहीं है वरन तत्कालीन समाज की राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य परभी प्रकाश डालती है . बनारसी दास जी ने स्वयं तीन मुग़ल शासकों का शासन देखा थाजिसमे अकबर , जहाँगीर और शाहजहाँ का काल शामिल है . अकबर के मृत्यु के उपरान्तप्रजा में फैली अनिश्चितता को भी इन्होने बताया है तथा अकबर की मृत्यु का समय भी 1605 ईस्वी में सिद्ध होता है , साथ ही साथ जहाँगीर का २२ वर्षों का शासन औरकश्मीर जाते हुए जहाँगीर की मृत्यु भी इस अर्धकथानक के द्वारा पुष्ट होती है .शाहजहाँ का मुग़ल सिंहासन पर बैठना भी इस कथानक में दर्शाया गया है . इन्होने अपने जीवन पर प्रकाश डालतेहुए लिखा है कि इनको पढ़ाई के लिए गुरूकुल में भेजा गया जहाँ पर इन्होने पद्य लिखनाप्रारंभ कर दिया. उस समय में हाट-बाजार में जाना छोड़ घर में पड़े-पड़े 'मृगावती' और 'मधुमालती'नाम की पोथियाँ पढ़ा करते थे - ''तब घर में बैठे रहैं,नाहिन हाट बाजार। मधुमालती,मृगावती, पोथी दोय उचार।।'' किंतु बनारसी दास ने अपने अर्धकथानकमें स्पष्ट रूप से कहा है कि - ''तजि कुल कान लोक कीलाज। भयौ बनारसि आसिखबाज।'' जैन कुल और लोक-मर्यादा के विपरीतआचरण कर बनारसीदास, 'आशिकी' करने लगे थे। उन्होंने अपनी युवावस्था में स्वयं के भटक जाने के चित्रउपस्थित किए हैं . ये पहले श्रृंगार रस की कविता कियाकरते थे | बनारसीदास ने नवरसों में रचनाएँ की हैं, लेकिनइसमें अधिक बल 'श्रृंगार-वर्णन' पर हीथा | इन्होने युवावस्था में श्रृंगार रस पर एकमहापद्य लिखा था जिसका वाचन उन्होंने अपने मित्रों के बीच किया था पर उसी समय आत्मज्ञान होने पर इन्होने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे। नई बनाई पोथी में अर्धकथानक ब्रजभाषामें है दोहा, चौपाई, छप्पय,सवैया छंद में लिखी गई है। इसमें उस समय समाज में प्रचलित अरबी-फारसी मुहावरों और शब्दोंका भी इस्तेमाल है। कवि बनारसीदास का जैन धर्म तथा अध्यात्म में योगदान· बनारसी दास जी ने जैन धर्म संबंधीअनेक पुस्तकों के सारांश हिन्दी में कहे हैं। अब तक इनकी इतनी पुस्तकों का पता चलाहै - 1. बनारसी विलास (फुटकलकवित्तों का संग्रह), 2. नाटक समयसार (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ समयसार का सार) :- ‘नाटकसमयसार’ कवि की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक और लोकप्रिय रचना है।आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द’ का ‘समयप्राभृत’, ‘आचार्य अमृतचंद्र’ की ‘आत्मख्याति’ संस्कृत टीका , और‘पं. राजमल’ कृत भाषा टीका इन तीनोंग्रंथों के आधार पर ही कविवर बनारसीदास जी ने इस ग्रंथ की रचना की है. 3. नाममाला (कोश), 4. अर्द्ध कथानक, 5. बनारसी पद्धति 6. मोक्षपदी, 7. धारुव वंदना, 8. कल्याणमंदिर भाषा, 9. वेदनिर्णय पंचाशिका, 10. मारगन विद्या इस प्रकार हम कह सकते हैं कि “कविवर बनारसीदास जी” असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे ,उनके द्वारा रचित साहित्य अध्यात्म की रीढ़ है , उनका स्थान आध्यात्मिक जगत में सदैव अक्षुण्ण रहेगा . हेमन्त जैन, उदयपुर |
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